अरे भय्या कहा मेला जमनेवाला है आज इन वॉचमन मंडलीका और उनके बीबी बच्चीयोंका? रास्ते के ठेले के कॉन्टेकटू मिले है ना हमको ब्लेकमे. क्या तिथियाभी चुनते है. उनके त्यौहार के दिन बराबर टालते है वोह मेले जमाना. अब भी मालीकोंकेही दिमागसे चलते है क्या यह गरीब? साल १९९२ मे क्या दिन भी चुना था इनके लीए इनके मालीकोंने बाबरी मशीद तोडनेकी धान्धलीके लीए? डरते थे ये और उनके उनसे ज्यादा डरपोक मालिक मशीद तोडनेके बाद होने वाली संभाव्य भिडंतमे मुसलमानोंसे बिना द्लीतोंके मदद अकेले भिडनेमे. इसी लीए तो बाबरी मशीद तोडने की तिथी इनके मालीकोंने दलित जिस दिन लाखोंकी भिडमे हर साल जमा होते है, वोह उनके मसिहा या भगवान स्वरूप आंबेडकर साहब की पुण्यतिथी की, ६ दिसंबर की तारीख ही चुनी. क्या मालिक भी चुने है यार इन्होंने खुदके लीए? उनकेही नक्शे कदम पर चलना इन्हे पसंद है. पर बुरा इस बात का लगता है की उनकी हर एक चीज कापी करते है फिर भी उनकी सुझ बुझ और अकल हुशारीसे अभीतक बराबरी नही कर सके ये येडे. वोह दलित आंबेडकर साब को हि देखो. छुते है ना इनके मालिक बाबासाहेबजीके पैर? २५००० कि तादादमे थे ये उनके मालिक बम्मन पेशवा के सरदार गोखले के हाथ के नीचे, दलीतोंके महार बतालियन के केवल ५०० फौजीओंके साथ भिडने के लीए. कुचल डालना चाहीए था उन केवल ५०० दलित फौजीओंको इन्होंने, अब जैसे भिडमे इकतठा हो कर द्लीतोंकी बस्ती कि बस्ती फुंक देते है, उस तरह ?नही कर पाये ये. उलटा इनकी पुरी कि पुरी २५००० कि फौज को केवल ५०० दलीतोंकी फौजने गंगा घाट का पानी पिलाया था. अपना स्तर उंचा करनेकी मानसिकता हि मर गयी है इनकी, मरते दम तक मालीकोंकाही अनुकरण करनेकी होडमे. खुदका स्वत्व हि खो बैठे है ये खुद को ५००० सालोंसे मालीकोंके नीचे हि रखनेकी आदत डालकर, जो अब इनकी चाहत मे बदल गयी है. राजे राजवाडोंकी डिंग मारते थकते नही थे ये. इनकी जलन तो उन धोबी कुर्मी को भी होती थी और अपनी जाती के साथ वोह इनकी जाती का नाम लगाते दलीतोंसे दुरी दिखाना चाहते थे. अब यह लोग जब उनके आरक्षण के तंबू मे घुंसना मांगते है तबसे ये उनके मानो दुश्मन हो गये. नमुने है एक एक . इनके मालीकोंने तो इन्हे उपर मुंडी उठनेका एक भी अवसर नही मिले इसलीए इन भगवान प्रेमी और कोई भी शैतानसे भयभीतोंके लीए ३३ करोड भगवान, और जेता बनना या जेता हि सबको ज्यादा प्यारा लगता और भाता है, यह बात पक्की जानते हुए, उस भगवान को जेता का स्वरूप प्राप्त हो इसलीए, बकरी ईद मे बकरीया जैसे कटनेकी हकदार होती है वैसे हर एक भगवानके हाथ कटनेके लीए हर एकके विरोधमे उन्होंने कटे जाने के लीए एकाध शैतान खडा करके, इन्हे भगवानके करीब जानेके या शैतानसे दूर जानेके अथक प्रयासोंमे हि व्यस्त रखनेके काल्पनिक प्रावधान बेखुबिसे बहोत पहलेसेही बना रखे है. चलो हमारा तो भला हि है. पहले, सालमे एकाध बार हि कोई गाव के मेले, परिक्रमा, वारीया, दिंडीया और १२ सालोंमे कई बार कुम्भ के मेले मे हमे कमानेके अवसर मिलते थे. अच्छा लगता है, इन येडोंको नाचणे गाने टाळ पिटनेकी खुदकि शारीरिक मेहनतका मुआवजा मंदिरोन्मे दक्षणा के स्वरूपमे अपने तुंदिल तनु मालीकोंको देना. बेचारे इतने सहिष्णू कि मालिक के दो साल के भी प्रवचन या हरी कीर्तन करने वाले बच्चे के उपदेशको वोह तारीफ के साथ गम्भिरतासे अंमल मे लाते है. ये ऐसी सहिष्णुता जब अब भी वोह दिखा सकते है, तो दलीतोंने भी भारत का नाम सहिष्णुता कें मामले मे उंचा करनेके लिये कुछ त्याग करना चाहीए हि ना? इनकी धारणा है कि, क्या फरक पडता है अगर दो चार दलित लडकीया या लडकोंपर इनके कुछ उत्साहीओंने रेप किया और उनके घर फुंक डाले तो! क्यू नही दलित पहले जैसे पीछे झाडू बांधकर अब भी घुमते है? क्यू इनके मालीकोंकी लाडकीयोंके साथ शादी करनेकी हिम्मत करते है? उनकी नझरसे तो मुझे वोह जायज लगते है. अरे कुछ परंपरा पालनी हि चाहिए ना. हजार गैर बम्मनोंके घरोंकी संख्यावाले संत तुकाराम के गाव के डरपोक बम्मनोके केवल एक हि घरके खाली एक बम्मन मंबाजीकि इज्जत का ख्याल रखके जाना माना तुकाराम जैसा आदमी भी पागल हो जाना बेहतर समझकर बीबी बच्चोंको छोडकर एकांत मे भाग गया था ना? अपनी किताबे बम्मन मंबाजी कि इज्जत का ख्याल रखते हि तो खुद नदी मे डूबोई थी ना? इसको कहते है संस्कार, वरिष्ठ जाती ओंके प्रती इज्जत दिखानेके. क्यो न भारत चांद पे जाने कि तय्यारी करे ऐसी परंपराओंके साथ हि? गयी भाड मे मानवियता. बुद्धको मानने वालोन्मेसे थोडे हि है हम. हमे तो देवी सीता को जंगल भेजने वाले राम का आदर्श रखना चाहीए. इस बार यह जो वारीयोन्का इनका सील सिला है वोह आखरी वारी पंढरपूर मे रचाके खतम करेगे या मुंबई के वडाळा मे यह जानने के लीए मै भी उत्सुक हु, अच्छा धंदा होगा. शायद इस बार इन्होंने उनके मेलेकी तिथिया खुद हि तय कि है. देखो ना दुनिया के साथ साथ उनके मालिक फडणवीस भी हंसते दिखे उनके रखवालदारोंके इस बिना मालिक आदेश के पवित्रे पर. कोपित भी दिखे पहली बार वे अपने मालिकके उस कुत्सित हंसी पर. उनके मालीकोंमेसे एक ऐसे कुत्ते भास्कर कुलकर्णीके टुकडे टुकडे करने वाले छत्रपती शिवाजी और उनके मालीकोंकी आय झेड करने वाले, शिवाजी महाराजके हि लोकोत्तर ऐसे वंशज छत्रपती शाहूमहाराज के बाद उनके मालीकोंपर ऐसे कोपित होते हुए वोह पहली बार दिखे गत ५०००सालोंमे. उनके मालीकोंने शादीसे लेकर राज्याभिषेक तक उनके नडे और मुसलमानोंका कुत्ता भास्कर कुलकर्णीसे पीडे शिवाजी का इस्तेमाल करते, इनकीही बदौलत तो, इनकेही कर्मविर भाऊराव पाटील, महर्षी शिंदे, शाहूमहाराज और महात्मा फुलेजी जैसे महारथीओंने मालीकोंकी अवसान अवस्थामे ढकेली हुई दुकाने, अब फिरसे उर्जितावस्था मे लाई है. नही तो कबका अपना बोऱ्या बिस्तर समेट कर फिरसे इराण भाग जाते थे इनके वे मालिक. गत कुछ गिने चुने राजा महाराजाओंको वजा किया जाय तो बीबी बच्चीया बेचकर राजतिलक बचानेवाले राजपुतोंका आदर्श तो महाराष्ट्र कभी मानता दिखा नही. पर वैसेहि जन्मजात कमहुनर नजर आते है ये वैफल्यग्रस्त गरीब! धुंड लेता हु उन्हे व्हात्सप पर.
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